क्या भारत कभी गुलाम था?: सुमिता धीमान
गौरव जैन
यह मुद्दा जैविक नाभिकीय युद्ध और भ्रमित समाज के सन्दर्भ में बहुत ही रोचक है। कितनी सभ्यताएँ आईं और गईं। पर हमारे हिंदुस्तान जैसी महान, ज्ञानी, सूझवान, व्यवस्थित, वैज्ञानिक, विकसित, फलित सभ्यता आज तक नही हुई। हमारे ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामदेव, अर्थवेद, वेदांग, उपवेद, ब्रह्नम, उपनिषद, सूत्र साहित्य, रामायण, महाभारत, गीता, स्मृति इत्यादि में जितना ज्ञान भरा है। क्या किसी और सभ्यता में आज तक ऐसा जीवन से जुड़े हर पहलु, पर इतने विस्तार और इतनी गहराई से अध्ययन मिलता है ? जीवन से जुड़े हर तरह के ज्ञान के विशाल विशाल सागर सिर्फ हमारी संस्कृति में ही मिलते है। ऋग्वेद की ऋचाओं में देवताओं की प्रार्थना, स्तुतियां और देवलोक में उनकी स्थिति का वर्णन है। इसमें जल चिकित्सा, वायु चिकित्सा, सौर चिकित्सा, मानस चिकित्सा और हवन द्वारा चिकित्सा का आदि की भी जानकारी मिलती है। ऋग्वेद में च्यवनऋषि को पुनः युवा करने की कथा भी मिलती है। सामवेद जिसमे गीत संगीत, नृत्य, वाद्य ज्ञान को विस्तृत रूप ने परिभाषित किया गया है। हमारे वेदों, ग्रंथों आदि में जीवन से जुड़े हर पहलु पर विस्तृत जानकारी मिल जाएगी। हमें समाज, जीवन, जीवन चक्र, सामाजिक जरुतों और ताने बाने की विस्तृत जानकारी थी। तभी तो हम जाति तंत्र और जाति प्रणाली की रचना कर सके। समाज को विभिन्न तरह के कामों, उद्योगों के आधार पर वर्गीकृत कर जाति तंत्र का निर्माण किया। यानि हमारा तब सामाजिक ढांचा पूर्ण विकसित था। हजारों साल पहले हम विभिन्न तरह के कामों और उद्यगों के बारे में जानते थे। जाति प्रथा के कारण कुछ ऐसी व्यवस्था की गई की बिना किसी विद्यालय, विश्व विद्यालय, डिग्री के अगली पीढ़ी अपने पैतृक काम में बचपन से ही निपुण हो जाती थी। हमने जीवन चक्र, इंसानो की जिम्मेदारियों, जरूरतों और व्यर्थ की मोह माया, चिंता, लालसा, इच्छाएँ, 99 का फेर समझ लिया था। जीवन चक्र की विस्तृत जानकारी और अपने लाजवाब ज्ञान, तप, त्याग की भावना के कारण ही हम जीवन को चार आश्रमों में बाँट पाए। ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, और सन्यास। यह आश्रम हमारी सभ्यता के काम, क्रोध, मोह, लोभ, अंह आदि जैसे विकारों पर विजय के सूचक हैं। इन प्रलोभनों से ऊपर उठा व्यक्ति ही इन आश्रमों की पलना कर सकता है। हमारी सभ्यता में ऐसे अनगिनत उदाहरण मिलेंगे; जिसमे राजा, महाराजा तक ने ज्ञान से ओत प्रोत हो सांसारिक मोह माया को त्याग दिया। यह हमारी सभ्यता के ज्ञान, तप, त्याग साहस के उदाहरण की चरमोत्कर्ष सीमा है। तभी गौतम बुद्ध, महावीर जैन, भीष्म, जनक, राम, सीता, लक्ष्मण, भरत, हनुमान, सम्राट अशोक, सिखों के दसों गुरु, महारानी लक्ष्मी बाई, सुभाष चंद्र बोस, भगत सिंह आदि हमारी हिंदुस्तान की ही धरती पर पैदा हुए।जिनके त्याग, ज्ञान, शौर्य, साहस की कोई मिसाल नही।
भारत का आयुर्वेद हजारों साल पुराना है। तीन हजार साल पहले महर्षि बाघ भट्ट जी ने पुस्तक अष्टांग हृदयम लिखी थी। युगों पहले भारतियों का चिकित्सक विज्ञान जबरदस्त था। भारतीय जड़ी बूटियों से बिना दुष्प्रभाव (side effects) के इलाज लाजबाव और कारगर था। इसका सीधा सा मतलब यह है कि भारतियों को अंग, अंग प्रणाली, शरीर क्रिया विज्ञान, रसायन विज्ञान, जीव रसायन, वनस्पति विज्ञान (organ, organ system, physiology, chemistry, biochemistry, botany) आदि की जड़ तक जानकारी थ। यानि हमने इन सब के बारे में सूक्ष्म अध्ययन (micro study) किया था और सम्पूर्ण ज्ञान था जैसे वात, पित्त, कफ, ठंडी तासीर, गर्म तासीर, बाया, विभिन तरह के तत्वों की जानकारी और उनका हमारे शरीर पर क्या प्रभाव पड़ता है ? हमारा शरीर कैसे काम करता है ? तत्वों, पौष्टिक तत्वों का हमारे शरीर पर क्या प्रभाव पड़ता है ? हजारों साल पहले ही हमें ग्रह नक्षत्रों, ग्रहों की चाल, ग्रहण आदि की भी पूरी पूरी जानकारी थी। हजारों साल पहले ही हमें खेती बाड़ी का भी सम्पूर्ण ज्ञान था। तब ही विभिन्न तरह की फसलें भारत में पैदा की जातीं थी।
पुष्पक विमान से हमारी टेक्नोलॉजी के उन्नत होने के सबूत मिलते हैं। पुष्पक विमान से ऊपर हमारे देवी देवता, ऋषि-मुनि एक लोक से दूसरे लोक दूरस्थ परिवहन (Teletransportaion) के जरिए चले जाते थे। किसी जहाज की भी जरुरत नहीं, टांटा नहीं। हजारों सालों पहले सतयुग, वैदिक काल में हम रथों का भी इस्तेमाल करते थे। हजारों साल पहले हमारी गृह निर्माण कला विस्मयकारी थी। स्वर्ण लंका, लाक्षा गृह, इंद्रप्रस्थ, हस्तिनापुर, स्वर्गलोक, द्वारका, यमलोक, बैकुंठ आदि आज भी पुराने विशाल मंदिर, अजंता-एलोरा की गुफाएँ खुजराहों के मंदिर, मध्य प्रदेश-ग्वालियर में सातवीं शताब्दी का शेर स्तम्भ, गजानन महाराज मंदिर, जम्बूकेश्वर मंदिर-तमिलनाडु, वीर नारायण मंदिर, कोणार्क मंदिर……..आदि आदि हमारे ज्ञान, विज्ञान, भवन निर्माण, शिल्पकारी के बेजोड़ नमूने हैं। हजारों साल पहले ही हम तरह तरह के कपड़ों, आभूषणों हीरे, मोतियों का इस्तेमाल करते हैं। यह तब की बातें हैं जब कई सभ्यताएँ पनपी भी नहीं थीं या कुछ सभ्यताएँ जंगलों में पत्ते बाँध रहती थीं। हमारी सभ्यता की जड़ें बहुत मजबूत और गहरी हैं। हमारी सभ्यता की समय अवधि भी तो बहुत ज्यादा है। तो निसंदेह हमारा अनुभव और अनुसन्धान भी काफी विशाल, विस्तृत, गहन है। ठीक हिमालय की तरह। ऐसे हिमालय को हिला पाना आसान नही है।
भारत एक बहुत विशाल देश है, विशाल प्राकृतिक विभिन्नता और सम्पदा के साथ। असंख्य पहाड़, नदी नाले, दरिया, झरने और मानसून। जो इसे सींचते हैं, पालते, जीवन देते है और व्यवसाय देतेहै । बदलते मौसमों, जल वायु के कारण भांति भांति की खेती बाड़ी, खाद्य पदार्थ। प्रकृति से पूर्णतः समृद्ध हमारे भारत में कहीं गर्मी, कहीं सर्दी, कहीं बर्फ, कहीं रेगिस्तान, कहीं पठार, कहीं मैदान, कहीं पहाड़, कहीं समुन्द्र । हर तरह की प्राकृतिक विभिन्नता का बेजोड़ नमूना। इतने बड़े क्षेत्रफल और विशालता के कारण तरह तरह की जीवन शैलियाँ, संस्कृतियाँ, भाषाएँ, धर्म जातियाँ, दिन त्यौहार, मान्यताएँ, रंग, नस्लें, पौशाकें, ज्ञान, जीव जंतु, जंगल, वनस्पति, इसकी सुंदरता को और निखारते हैं। कई तरह की खानो का भण्डार हमारे भारत में ही है। जनसंख्या के मामले में भी भगवान जी की सदैव विशेष कृपा रही है। यही बातें बताती है कि कोई देश, सभ्यता कितनी विकसित, विशाल, उन्नत और समृद्ध है। यही सब बातें हमारे हिंदुस्तान को गौरवमयी और इसकी महानता को चार चाँद लगातीं हैं। ज्यूंहि तो नहीं कोलम्बस और वास्को डी गामा भारतवर्ष की ख्याति सुन कर इसे ढूँढ़ने के लिए निकल पड़े थे।
डेविड फ्राली (अमेरिकन) "जब बाकी दुनिया पढ़ना लिखना भी नहीं जानती थी। तब भारत में हिन्दुओं ने वेद लिख दिए थे। जब बाकी दुनिया में शिक्षा भी नहीं थी, तब भारत में गुरुकुल चला करते थे। यहाँ शिक्षा दी जाती थी। " हमारी कला, संस्कृति, सभ्यता इतनी समृद्धशाली है कि हजारों वर्ष पूर्व जब बहुत ही सभ्यताएँ खाना बदोश जीवन जी रहीं थीं। तब भारत में सिंधु घाटी उन्नति के शिखर पर थी। हमने दूसरी सभ्यताओं से कहीं पहले आध्यात्मिकता, खगोल, साहित्य, विज्ञान, इंजीनियरिंग, निर्माण, गणित, दशमलव संख्या प्रणाली, शून्य, ऋणात्मक संख्याएं, बीजगणित, त्रिकोणमिति, ज्यामिति, कैलेंडर, कृषि, व्यवसाय, प्राकृतिक नियमों का निर्माण, चिकित्सा विज्ञान, या अंतरिक्ष में महारत हासिल कर ली थी और इसके लिखित प्रमाण भी मिलते हैं। हमने कई तरह के दिमागी और शारीरिक बल इस्तेमाल होने वाले खेलों को भी रचा जैसे शतरंज, साँप सीढ़ी, लुडो, हॉकी, कब्बडी, मलखम्ब, द्वन्द, मार्शल आर्ट, योगकला आदि । हम ही पारिस्थितिकी या पारिस्थितिकी तंत्र (ecology or ecosystem) को युगों से जानते और इसकी पालना करते आ रहे हैं !
जिन विदेशी आक्रमणकारियों ने भारत पर हमला किया। वे ज्यादातर रेतीले और बर्फ़ीले इलाकों से थे। रेतीले इलाकों मे रहने वाले सब कबीलों में रहने वाले खानाबदोश लोग थे। और यूरोप के बर्फीले इलाकों के देश इंग्लैंड, फ्रांस, पुर्तगाल जिन्होंने भारत पर राज किया। भारत के मुकाबले यह देश बहुत ही छोटे छोटे हैं। जनसंख्या, संसाधन, वातावरण आदि के मामले मे भारत इन देशों और कबीलों से कहीं आगे था। आज के दौर में इतनी विज्ञान और टेक्नोलॉजी की तरक्की के बावजूद, अभी भी कई जगह और इलाके पानी और खाद्य आपूर्ति से ग्रस्त हैं। तो सैंकड़ों साल पहले इन बर्फीले और रेतीले इलाकों में खाने पीने की क्या व्यवस्था थी ? बर्फीले और रेतीले वातावरण का जलवायु ज्यूँ ही सहना आसान होता है क्या ? आज भी इतनी सुख सुविधाओं के होने के बावजूद लोगों की गर्मी, सर्दी से मौत हो जाती है। तब खेती बाड़ी पूरी तरह से वातावरण पर ही आधारित और आश्रित होती थी। इन बर्फीले और रेतीले इलाकों में बर्फ और रेता खाने को, पीने को, पहनने को, ओढ़ने को, बिछाने को, बीजने को, काटने को और हथियार बनाने को। इन छोटे छोटे देशों और कबीलों में बटे लोगों के पास क्या प्राकृतिक संसाधन थे ? क्या व्यापार, क्या शिक्षा, क्या व्यवस्थित योजना ? मेरे हिसाब से इन बर्फीले और रेतीले इलाकों में रहने वाले इन लोगों के पास तो इतनी भी कपास नहीं होगी कि यह अपनी अँगुलियों पर गिनी जा सकने वाली जनसंख्या की नालों की ही मांग को पूरा कर सकें।
इन विदेशी आक्रमणकारियों ने सोने की चिड़िया भारत पर आक्रमण लालच में किया। क्योंकि भारत एक समृद्ध देश था। समृद्धि ज्यूँ ही आ जाती है ? व्यापार ज्यूँ ही फल फूल जाते हैं ? बड़े बड़े विश्व विद्यालय तब भारत में थे। क्या वहाँ सब दिमाग के सुलाए हुए थे ? हमारे भारत के इतिहास में जितने भी नामचीन यौद्धा हुए हैं। वह सब गुरुकुल से ही थे। गुरुकुल में सिर्फ अक्षर ज्ञान ही नहीं दिया जाता था। बल्कि विधार्थी का सर्वपक्षीय विकास किया जाता था। हमारे मंदिरों मे ही इतनी धन दौलत थी कि मंदिरों पर आक्रमण करने वाले लूटेरे अमीर, धनि हो जाते थे। तो हमारे घरों और देश में कितनी धन सम्पदा होगी ? क्या हम मंद बुद्धि भारतीयों ने सिर्फ धन कमाना ही सीखा था ? संभालना नहीं ? क्या हमारे भारत ने एक ही पौरस, एक ही चाणक्य, एक ही परशुराम और एक ही लक्ष्मी बाई को पैदा किया ? कहते है कि भगवान जब हुस्न देता है तो नजाकत आ ही जाती है। हमारी पंजाबी में एक कहावत है "जिसकी कोठी दाने, उसके कमले भी सयाने"। बेशक भारत तब एक छोटे छोटे राज्यों में बटा था। पर सत्ता थी, प्रशासन था, शिक्षा थी, व्यवसाय था, खेती बाड़ी थी, व्यवस्था थी, हर राज दरबार में कूटनीतिज्ञ थे जो सचेत, दूरदर्शी, तीक्ष्ण बुद्धि होते थे, प्रशिक्षित सेना को तमाम सहूलतें, देश भक्ति और स्वाभिमान । यह कबीलाई लोग, छोटे छोटे बर्फीले इलाकों मे रहने वाले लोग कैसे एक विशाल, उनके मुकाबले अति विकसित, शिक्षित, समृद्ध देश को चुनौती दे सकते हैं ? देश में सब तरह के नियम कानूनों की पालना होती है। ठीक है उस वक़्त राज्यों/रियासतों में फूट होती थी। पर सब रियासतों में ! जब एक रियासत के साथ बुरा हुआ तो क्या दूसरी रियासत नहीं चेती, सम्भली, सबक लिया ? इन भारतियों को विदेशी और परतंत्रता इतनी प्रिय हो गई ! ये सब रियासतें आपस में व्यापार तो करती होंगी। दूसरे और कई तरह के रिश्ते नाते, लेनदेन, वास्ते भी होंगें। तो देश की रक्षा और अखंडता के वक़्त ही परेशानी, मन मुटाव क्यों ?
चलो अब थोड़ी चर्चा अंग्रेजों पर। जब सिकंदर मिस्र, मिडिल ईस्ट आदि देशों को जीत रहा था तो पौरस को खबर मिल गई सिकंदर के आक्रमणों की। तो पोरस ने झट से दूसरे राजाओं को भी सिकंदर के विरुद्ध लड़ने के लिए तैयार कर लिया। तो क्या भारतीय राजाओं को यह नहीं पता चला कि अंग्रेज अमेरिका में क्या गुल खिला कर आ रहे है ? जब बंगाल का दौर बुरा चला तो क्या तब भी दूसरे राजाओं ने अक्ल से काम नहीं लिया ? भारतीय जनता, राज दरबारी, सेना अपने राजा से वफ़ा निभाने के वक़्त लोभी, बेईमान, स्वार्थी, फूट - जलन से ग्रस्त हो जाती थी। जिसके कारण भारतीय राजाओं को अंग्रेजों के हाथों हारना पड़ता था। फिर वही दरबारी, सेना अंग्रेजों से हार कर, उनके गुलाम बन कर अंग्रेजों के लिए जी जान से लड़ते थे। गद्दार की फितरत में तो गद्दारी ही रहती है ना हमेशा तो यह गद्दार, लालची भारतीय अंग्रेजों के इतने वफादार कैसे हो जाते थे ? कैसे उनके तलवे चाटने लगते थे ? अपनी जान, मान सम्मान की परवाह ना करते हुए, अंग्रेजों के लिए अपने ही भारतीय भाई बंधुओं से लड़, उनका क़त्ल कर देते थे ! और इस तरह भारतीय राजा को हरा कर खुद ही अपने भारत का साम्राज्य अंग्रेजों के हवाले कर देते थे ? क्या भारतियों को खुद शासन करना और किसी भारतीय का भारत पर शासन करना प्रिय नहीं लगता था ? भारतियों को तो ऐसी सूज बूझ, दूरदर्शिता के लिए "कालिदास पुरूस्कार" और इतनी बढ़िया राजनिती, कूटनीति और रणनीति के लिए उल्लूक राज की उपाधि देनी चाहिए। मुझे यहाँ एक और पंजाबी कहावत याद आ रही है "चोर से ज्यादा गठरी को जल्दी"। क्या भारतियों ने ईरानियों, यूनानियों, शकों, पह्ल्वों, कुषाणों, हुणो, अरबियों, तुर्कियों सब से ऊपर मुगलों से कुछ नहीं सीखा ? शताब्दियों की गुलामी भी भारतियों को कुछ न सीखा सकी ! कहाँ वैदिक, सुव्यवस्थित, वैज्ञानिक, शिक्षित भारतीय सभ्यता और कहाँ अँगुलियों पर गिने जा सकने वाले अंग्रेज। दोनों विश्व युद्ध क्यों हुए ? पहला विश्व युद्ध तो ऑस्ट्रो हंगेरियन साम्राज्य का था सिर्फ और दूसरा विश्व युद्ध जर्मनी का। अगर जरुरत पड़ने पर यह छोटे छोटे बर्फीले देश स्वतंत्र इकाई/देश होने के बावजूद एक दूसरे की सहायता के लिए मेदान में उतर आए और साधारण से युद्धों को विश्व युद्धों का रूप दे दिया तो क्या भारतीय राजा अपनी "भारतीयता " को बचाने के लिए एक दूसरे के लिए डट कर नहीं खड़े हो सकते थे ? यह सब ऐतिहासिक घटनाएँ रचित है जैविक नाभिकीय युद्ध की परिस्थितियों के हिसाब से। वर्ना भारतीय भी खाना ही खाते थे घास नहीं। बात यही ख़त्म नहीं होती। मैंने कहीं पढ़ा था कि 1947 में भारत की जनसंख्या 33 करोड़ थी। पाकिस्तान और बांग्लादेश की जनसंख्या को निकाल कर। और तब इंग्लैंड की जनसंख्या थी एक लाख !!! हे भगवान् !!! 33 करोड़ : एक लाख ! हद है, कमाल है। 33 करोड़ और एक लाख का अनुपात तो सिर को घुमा देने वाला हुआ। एक करोड़ में कितने लाख होते हैं और 33 करोड़ में कितने लाख हुए ? अब इंग्लैंड की एक लाख की जनसंख्या का हिसाब किताब देखते है।
पहले युद्ध करना, खेती करना, लोहे आदि का सब काम हाथों से ही होता था। कोई मशीन या कृत्रिम बुद्धिमत्ता (artificial intelligence ) नहीं थी। इस तरह इन कामों मे औरतों की कोई सहभागिता नहीं। औरतें तो पूरी तरह से नक्कारा इतने भारी और सख्त कामो के लिए। मतलब कि काम आने वाली इंग्लैंड की पुरुषों की संख्या कोई पचास हजार। अब इस पचास हजार में सभी हष्ट पुष्ट जवान पुरुष ही तो नहीं होंगें। इस पचास हजार की नर संख्या में 33 % बच्चे और किशोर, 33 % बुजुर्ग और बीमार और बचे 33 % जवान मर्द। मतलब कि 1947 में इंग्लैंड के पास जवान मर्दों की संख्या कोई 16 से 17 हजार के आस पास होगी। अब 16 -17 हजार के 16 -17 हजार जवान फौज में ही तो नहीं होंगें। कोई वकील, कोई जज, कोई शिक्षक, कोई प्रोफेसर, कोई डॉक्टर, कोई स्टाफ बॉय, कोई केमिस्ट, कोई फार्मासिस्ट, कोई संभरक और पूर्तिकार (supplier) कोई वैज्ञानिक, कोई प्रयोगशाला सहायक, कोई दार्शनिक, कोई पुरातत्व खोज करता, कोई चपड़ासी, कोई लिपिक कर्मचारी (clerical staff), कोई सफाई कर्मचारी, कोई द्वारपाल, कोई पादरी, कोई किसान, कोई बागवान, कोई इन वस्तुओं का विक्रेता, कोई पूर्तिकार, कोई चित्रकार, कोई, मूर्तिकार, कोई गीतकार, कोई संगीतकार, कोई रंगमंच कर्मचारी, कोई मेकअप आर्टिस्ट, कोई इन कास्मेटिक को बनाने वाला और बेचने वाला, कोई दर्जी, कोई जुलाहा, कोई चुमार, कोई जमादार, कोई नाई, कोई लोहार, कोई बढ़ई, कोई राजमिस्त्री, कोई मजदूर, कोई करियाने की दुकान वाला, कोई पंसारी की दुकान वाला, कोई तेली, सुनार तो खैर इनके पास होंगे नहीं, कोई फेरी वाला, कोई घड़ीसाज, कोई झटकई, कोई कुम्हार, कोई टांगे वाला, कोई लोगों के घरों में काम करने वाला, कोई सफेदी करने वाला, कोई औजार और हथियार बनाने वाला, कोई खानो मे काम करने वाला…….आदि अदि लम्बी सूची। कुछ निक्कमे, नशेड़ी, रोमियो की बिरादरी के। ऊपर से तब का वातावरण और सुविधाएँ ? इसे ही कहते है "सिर मुंडवाते ओले पड़े "
यहाँ मेरे कहने का मतलब है कि अब इंग्लैंड के पास कितने मर्द बचे सेना में भर्ती होने के लिए ? ऐसे में यह सोचना कि इंग्लैंड के पास अपनी कोई सेना भी होगी तो यह हास्यप्रद होगा। नंगा नहाएगा क्या और निचोड़ेगा क्या ? ऐसी स्थिति मे कुछ सुरक्षा कर्मचारी ही हो इंग्लैंड के पास तो यही बहुत बड़ी बात होगी। अगर मान लो अंग्रेजों के पास कुछ, अँगुलियों पर गिने जा सकने वाली सेना होती भी तो उनके लिए हमारी भारतीय नारियाँ ही काफी थीं । उन्हें आठ आठ फुट नीचे जमीन में गाड़ने के लिए। भारतीय मर्दों तक तो बात जानी ही नही थी। अगर हिंदुस्तानी औरतें जोहर कर सकती हैं। अपने मान सम्मान के लिए हँसते हँसते अपनी मर्जी से सती हो सकती हैं, मर सकती हैं। तो क्या अपने मान सम्मान, गौरव के लिए वो किसी की जान नहीं ले सकतीं ? जैसे समाज को सुचारु रूप से चलाने के लिए हलवाई, बावर्ची जमादार, सफाई कर्मचारी, चुमार, लुहार, नाई, दर्जी आदि चाहिए। ठीक ऐसे ही सेना में भी इन नौकरियों की भी जरुरत होती है। देश के पास मात्र सेना होना ही काफी नही है। फिर सेना का होंसला बढ़ाने के लिए उनका संगीत बैंड भी होता है।
एक लाख अंग्रेजों की संख्या तो 1947 मे थी। जब अंग्रेजों ने अमेरिका पर राज किया। तब इंग्लैंड की क्या जनसंख्या होगी ? जब अंग्रेजों ने दूसरे देशों पर राज किया, तब। जब 1757 ईस्वी में अंग्रेजों ने सिराजुद्यौला की सेना को प्लासी के युद्ध मे हराया। जिस युद्ध के द्वारा अंग्रेजों का भारत मे राज्य स्थापित हुआ । जिसमे सिराजुद्यौला की सेना मे18000 सिपाही थे और अंग्रेजों के पास कुल 300 सैनिक । पर सोचने वाली बात है कि क्या तब अंग्रेजों के पास तीन सौ सैनिक होंगे ? यह इंग्लैंड की जनसंख्या है या कच्ची लस्सी। इतना तो कच्ची लस्सी भी नहीं खींचती। मात्र सोलह - सत्रह हजार कुल जवानो की संख्या के साथ अंग्रेजों ने सारी दुनिय पर कैसे राज कर लिया ?!!! साफ है सब कुछ कृतिम, रचित है। जैविक नाभिकीय युद्ध के हिसाब से।
अब बात यूरोप मे औद्योगिक क्रांति की करते है। उद्योगों के लिए क्या क्या चाहिए होता है ? मानव संसाधन और प्राकृतिक संसाधन, दूसरे युरोपिए देश फ्रांस और पुतर्गाल को छोड़ो। क्या छोटा सा इंग्लैंड इतनी बड़ी औद्योगिक क्रांति अपने पचास हजार नर जनसंख्या के साथ ला सकता है कि उसकी अर्थव्यवस्था दूसरे विशाल, समृद्ध, खुशहाल देश को हरा सके ? पहले अंग्रेज जहाजों से भारत आते थे। भारत से कच्चा माल (=प्राकृतिक संसाधन) इंग्लैंड ले जा कर, उससे वस्तुएँ बना कर, फिर उसे दुबारा इंग्लैंड से जहाजों पर भारतीय बाजार में बेचने के लिए लाते थे। ऐसे मे किसी साधारण वस्तु का मूल्य कितने गुणा बढ़ जाता होगा ? फिर इन्ही मंहगी चीजों को अंग्रेज, कालिदास के वंशज हमारे भारतियों को मुनाफे में बेचते थे। सिर्फ प्रशासन ही नहीं जनता भी सो रही थी क्या ? हमारे हिंदुस्तान में जनसंख्या का अकाल पड़ गया था क्या या फिर हमारे यहाँ के नौजवानो को रोजगार चाहिए ही नहीं था ? भारत में समाज का वर्गीकरण नागरिकों को अपने अपने क्षेत्र में विशेषज्ञ बनाने के लिए ही तो हुआ था। तो उस समय के पंडित, ज्ञाता, वैश्य समाज, कुलीन समाज, क्षत्रिय आदि क्या कर रहे थे ? सो भारत के गुलाम होने का मुद्दा मात्र वहम, अवधारणा ही है और जैविक नाभिकीय युद्ध की जरूरतों और उद्देष्यों को पूरा करने के हिसाब से कृतिम रचा गया है।
विश्व युद्ध : --- दोनों विश्व युद्धों में भारतीय सैनिकों के अदम्य शौर्य के किस्से आज भी लोक गाथाओं की तरह मशहूर हैं। दोनों विश्व युद्धों में महान भातीय यह सोच कर अपनी जान पर खेल गए कि इंग्लैंड की इतनी मदद करने के एवज़ में अंग्रेज उन्हें स्वतंत्र कर देंगे। तब के समय में जितने भी भारतीय राजनीति में नेता लोग थे और अग्रिम स्वतंत्रता सैनानी थे। वे सब अच्छी शिक्षा ग्रहण किए हुए थे। कुछ तो विदेशों से भी शिक्षा प्राप्त कर के आए थे। ज़्यदातर अग्रिम नेता वकील ही थे। तो वो अपने भारत का, अपनी भारत माँ का ही केस कैसे गल्त लड़ सकते थे ?
पहले विश्व युद्ध में शामिल हुए भारतीय सैनिकों की संख्या - 700000
मारे गए सैनिक - 62000 घायल हुए सैनिक - 67000
कुल भारतीय सैनिकों की मौत - 74187
दूसरे विश्व युद्ध में पहले शुरुआत में शामिल हुए भारतीय सैनिकों की संख्या - 200000
1945 पहुँचते पहुँचते युद्ध में शामिल हुए भारतीय सैनिकों की संख्या - 2500000
मारे गए सैनिक - 36000
घायल हुए सैनिक - 34354
युद्ध बंधी बनाए गए सैनिक - 67340
दोनों विश्व युद्धों में एक लाख से ऊपर सैनिक शहीद हुए। स्वतंत्रता के लिए कितने क्रन्तिकारी शहीद हुए ? उनका कोई रिकॉर्ड नहीं। कितनो ने जेलें काटी पता नही। कितने परिवार पीड़ित हुए ? इसका कोई हिसाब नहीं। 1947 में कितने मरे, कितने उजड़े, कितने बर्बाद हुए। इसकी कोई जानकारी नही। कहते है कि दोनों विश्व युद्धों में ब्रिटिश सैनिकों को भारतीय सैनिकों के मुकाबले ज्यादा बढ़िया भोजन, वेतन, दूसरी सहूलतें दी जाती थी। भारतीय और ब्रिटिश सैनिकों मे यह भेद भाव सरेआम किया जाता था। फिर भी भारतीय सैनिक जी जान से अंग्रेजों के लिए लड़ते। वो भारतीय जिन्होने आपसी फूट, सत्ता का लालच और अपने छोटेछोटे निजी लाभ के लिए अपने ही भारत, अपने ही भाई बन्दुओं से धोखा, छल किया और भारत को शताब्दियों तक गुलाम बना कर रखा। वो भारतीय अंग्रेजों के इतने गुलाम क्यों हो गए ? तब कोई गद्दार क्यों नहीं निकला जो मुसलमानो और अंग्रेजों से गद्दारी कर भारत को स्वतंत्र होने में सहायक होता।
क्या हम भारतीय जूनागढ़ से आएँ हैं ? क्या हम मे आत्म सम्मान नहीं ? क्या हमे अपनी महत्वता का पता नहीं ? क्या हम मे खुद्दारी नहीं ? क्या हम निंद्रा श्रेणी (sleeping class) से है ? हमारा अपना कोई बोध नही, ज्ञान नही, समझ नही, दूरदर्शिता नही ? जैसा विदेशियों ने भारतियों को हुक्म दिया। वैसा ही भारतियों ने आँख, कान, दिमाग बंद कर ईमानदारी से हुक्म बजा दिया ! क्या हमे अपनी ताकत का तब अनुमान ही नही था ? हद है !
भारत में स्वतंत्रता संग्राम के लिए अग्रिम नेता, स्वतंत्रता सैनानी और शामिल दूसरे लोग दयनीय भाव लेकर, बेबस से बनकर, आजादी के लिए ललचाई सी आँखों के साथ, चरमराती सी उम्मीद ले कर अंग्रेजों से क्या आस लगाए हुए थे ? वैसे भी तो भारतीय प्रतिदिन आजादी के लिए अंग्रजों के जुल्म सह ही रहे थे।
और हमारे अहिंसा के पुजारी महात्मा गाँधी जी की अंतर्रात्मा कहाँ तब गुम हो गई थी। जब दोनों विश्व युद्धों में कितने जवान भारतीय सैनिकों का खून गंगा-यमुना की तरह बहा दिया गया ? अहिंसा को परम धर्म मानने वाले महात्मा गाँधी जी ने इतना हिंसक मंजर कैसे देख लिया ? अपनी ही आजादी को पाने के लिए हिंसा के मार्ग को अपनाने को वो गल्त मानते थे। तो अंग्रेजों के युद्ध के लिए उन्होंने कैसे अपने इतने भारतीय बच्चों की आहुति दे दी? यह सब तो हिटलर के होलोकॉस्ट से भी ज्यादा बुरा हुआ। हिटलर ने असंख्य यहूदियों को मरवाया। क्योंकि वे यहूदियों से नफरत करता था। पर महात्मा गाँधी जी ने अपने हिंदुस्तान का इतना खून बहाने में सहयोग क्यों किया ? गाँधी जी का मानना था कि अंग्रेज भारतीय सैनिकों को वेतन देते हैं। इसलिए भारतीय सैनिकों को अंग्रेजों के लिए लड़ना चाहिए! क्या अंग्रेज इंग्लैंड से पैसे ला भारतीय सैनिकों को वेतन देते थे ? अपनी जूती अपना सर वाली बात थी।अंग्रेज भारतीय जनता के साथ लगातार दुराचारी, नाइंसाफी कर रहे थे। भारत के संसाधनों को बुरी तरह से लूट रहे थे। भारत, भारतीय जनता और भारतीय संसाधनों को बचाने की बजाए अहिंसावादी महात्मा गाँधी जी अंग्रेजों को और तानाशाह, बेरहम बनाने मे मदद कर रहे थे।
कितने सैनिक, कितने क्रांतिकारी, कितनी आम जनता शहीद हुई आजादी के लिए। अंग्रेजों का भारत पर अपना राज स्थापित करना ऐसा ही था जैसे कोई चूहा किसी हाथी को निगल जाए। ऐसा अगर करिश्माई समीकरण बन सकता है कि चूहा किसी हाथी को खा जाए तो यह समीकरण नहीं बन सकता कि वही हाथी उस चूहे को ही निगल जाए ? हर रोज वैसे भी इतने भारतीय शहीद हो रहे थे। अंग्रेजों के हाथों प्रताड़ित हो रहे थे। और भारतीय उनसे ही अपनी आजादी की भीख मांग रहे थे। तो इस पर ही महात्मा गाँधी, उनके समर्थकों ने, क्रांतिकारियों ने, देश की जनता ने यह क्यों नहीं सोचा कि 8 -10 अंग्रेजों को ही दिन दहाड़े चौक पर खड़ा कर उन्हें गोली मार दी जाए। बाकी के अंग्रेज ज्यूँ ही डर के कारण भारत छोड़ कर भाग जाएँगे। पर सोचने वाली मुद्दे की बात यह है कि उस वक़्त भारत में मौजूद अंग्रेजों की संख्या क्या थी ? हर एक अंग्रेज को एक भारतीय मार देता तो कितने भारतीय चाहिए थे अंग्रेजों को मारने के लिए ? तब भारतीय भी तो मर ही रहे थे। उनकी जगह अंग्रेज ही मर जाते। न जाने भारतीयों की तब क्या मानसिकता थी ? किस ताकत ने उनकी सोच पर पर्दा डाला हुआ था। जितने जवान आजादी पाने की एवज में दोनों विश्व युद्धों में शहीद हुए। आजादी पाने के लिए ऐसे उससे कहीं कम जवान शहीद होते। अगर जवान विद्रोह कर देते तो अंग्रेजों को भारत छोड़ने के लिए कोई रास्ता नही मिलना था।
वैसे तो गाँधी जी झट अनशन पर बैठ जाते थे। तो दोनों विश्व युद्धों में हुए शहीदों को देख कर क्यों अनशन पर नहीं बैठ गए ? अंग्रेजों से आजादी पाने के लिए, अंग्रेजों की मदद को जो भारतीय सेना युद्ध में भेजी गई। उसी सेना की मदद से तब अंग्रेजों का ही तख्ता पलट क्यों नहीं कर दिया गया ? मौका भी अच्छा था। अंग्रेज पहले ही युद्ध में उलझे हुए थे। मौके पर चौका भारतीयों को मारना चाहिए था। ओह हे भगवन जी ! महान भारतीय तब अपनी मदद करने की बजाए निरकुंश, तानाशाह, यम अंग्रेजों की मदद करने में झुट गए ! अविश्वसनीय ! युद्ध जीतने के बाद तो सत्ता पर आसीन व्यक्ति की ताकत और भी बढ़ जाती है। अगर वो तानाशाह है तो वो और भी क्रूर हो जाएगा। घास खाने वाले जानवर को भी अपनी रक्षा और मदद करनी आती है। क्या हम भारतीय बार बार लगातार शताब्दियों तक ऐसी गलतियाँ कर सकते हैं ? ग़लतऔर अनुचित फैंसले ले सकते हैं ? यह कृतिम इतिहास जैविक नाभिकीय युद्ध मे कुछ महत्वपूर्ण सुराग देता है। और इस युद्ध मे हुई कुछ महत्वपूर्ण घटनाओं को बताता है और कुछ नही। वर्ना अंग्रेज तो सपने में भी भारत पर राज करने का नही सोच सकते। वो अपनी आर्थिक स्थिति, संसाधनों, वातावरण-मौसम, सेहत, ऐसे कठोर जलवायु में बुनियादी जरूरतों को ही पूरा कर लें तो यही कमाल नही करिश्मा है।
इन सब से फिर यही बात सिद्ध होती है की हमारी धरती पर जीवन 3 अप्रैल1975 से ही शुरू हुआ है। अगर यह दुनिया जैविक नाभिकीय युद्ध का रंगमंच/सेट ना होती तो भारत देश का असली इतिहास कुछ और ही होता। जैसा हम जानते है वैसा नही।
लेखिका:- सुमिता धीमान
कपूरथला पंजाब
मो0 न0:- 09814010567
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